कहां गया मेरा वो गाँव

बड़ी उलझन मैं हूं। व्यथित भी हूं। क्योंकि मेरा गाँव कहीं गुम हो गया है। वो गाँव जिसकी याद करते ही मन मयूर नाच उठता था। भला नाचता भी क्यों ना? गाँव का हर चेहरा भोला और अपनेपन से लबरेज था। पूरा गाँव प्यार का सागर नजर आता। शहर का अपनापन वाहनों के शोरगुल और धुएं में गुम-सा गया था इसलिए गाँव मन को अधिक भाता था। गांव में घर के ठीक सामने नीम के पेड़ों का झुरमुट और इनसे छनकर आने वाली शीतल बयार के आगे भीषण गर्मी की तपन भी घुटने टेक देती थी। कुछ ही फर्लांग की दूरी पर कल-कल करती क्वारी नदी बहती थी। गांव के ही कुछ कच्छा बनियानधारी दोस्तों के साथ नदी में कूद-कूदकर नहाना, तैरना और फिर घंटों नदी किनारे रेत पर लेटे रहना तन-मन को आनंदित करता था।

नौकरी की भागदौड़ में मेरा अपना गाँव मुझसे लगातार दूर होता चला गया। लगभग दस साल बाद पिछले सप्ताह गाँव जाना हुआ तो वहां कुछ घंटे ठहरना भी मुश्किल हो गया। लगा ही नहीं यह वही गांव था जिसके लिए मैं हर साल गर्मियों की छुट्टियों या फिर किसी शादी समारोह का इंतजार किया करता था। क्वारी नदी अब भी अपने स्थान पर थी लेकिन पानी की तासीर बदल चुकी थी। पानी चुगली कर रहा था कि क्वारी नदी किसी शहर के गंदे नाले से मिलकर आई है। घर के बाहर नीमों के झुरमुट का आकार भी घटकर एक चौथाई रह गया था। पहले की तरह बिजली अब भी महीनों में यदाकदा ही आती थी और सड़क देखकर यह अंदाज लगाना मुश्किल था कि सड़क पर गड्ढे हैं या गड्ढे में सड़क।

गांव जाना यूं ही नहीं हुआ था। एक सगाई समारोह था। रात्रि दस बजे तक सब कुछ सामान्य था लेकिन जैसे ही सगाई की रस्म पूरी हुई, गांव के 30-४0 छोरों ने अपनी पतलूनों के दाएं-बाएं लगाकर रखे देसी कट्टे (तमंचे) निकाले और दोनों हाथों में लेकर हवा में लहरा दिए। देखते ही देखते तड़ातड़ फायर होने लगे। सुंदर सा नजर आने वाला शामियाना फायरिंग रेंज में लगे बोर्ड में तब्दील हो गया। यह नजारा देखकर मैं सहम गया, इस डर से कि कहीं कोई गोली मेरी ओर न आ जाए। आखिर गोली को तो नहीं पता कि कौन अपना है और कौन पराया। चंबल के बीहड़ों में जब खूंखार डकैतों की सल्तनत चला करती थी, तब भी हालात ऐसे नहीं थे। परिवार के छोटे-बड़ों का गुजारा खेती-किसानी से चल जाता था। इस वाकये ने मुझे अंदर तक हिलाकर रख दिया। ये हालात क्यों और कैसे बने, यह लंबी कहानी है। फिर भी यदि आपको मेरा प्यार गाँव मिल जाए, तो मुझे बताभर देना। मैं बचपन की तरह घुटनों के बल चलकर पहुंच जाऊंगा?

Comments

Arshad Ali said…
Gown to ham sabhi ne kho diya hay
milne wala bhi nahi
wajah laakhon hay..
koi jarurat ho to gawn ki yaad aai
kishi ki shadi kisi ki sagai me
nahi to ham mast hay apne shahri dunia me..
gown ko dhundhane ka bas ek tarika hay..
apne andar gown ko jinda rakhe jab bhi gawn jaayen to wahan ke mahatw ko ujagar karen na ki buraiyon ko..
सब कुछ बदल गया है अब कहाँ मिलेगा वो गाँव । शुभकामनायें
अपने गाँवों को हमने बिसरा दिया तो गाँव हमसे दूर जाएगा ही। गाँव हमारे लिए सिर्फ भावनात्‍मक लगाव का एक जरिया रह गया। जब हम शहरी बोझ से परेशान होते हैं तो गाँव की रोमांटिक छवियाँ हमारे जहन में कोंधती है। गाँव को बचाने के लिए हमें गाँव के बारे में गंभीरता से सोचना होगा। कुछ करना होगा।
बधाई, एक अच्‍छी भावनात्‍मक पोस्‍ट है।
gaaon ko banane wale nadiya kinaare khelne waale hi jab chale gaye to bhala gaaon kaise na badle
woh bechara to apne premiyon ke jaane se udaas tha
use yahi lag raha tha ki kal tak jo use chahta tha uski गॊद me khelta tha aaj shahar ka dewwana ho gaya hai
bus isi tees me woh bhi chal pada shahar ki ऒर
abdhnagar said…
आपकी पोस्ट पढ़कर मुझे जॉनीवाकर की फिल्म का गाना याद आ गया।
आ जा प्यारे पास हमारे काए घबराए.................
Anonymous said…
पानी चुगली कर रहा था कि क्वारी नदी किसी शहर के गंदे नाले से मिलकर आई है।
....
मैं बचपन की तरह घुटनों के बल चलकर पहुंच जाऊंगा?
सुंदर भावनात्मक आलेख
वक़्त को देखते हुए उम्मीद तो तो बहुत कम है लेकिन हार्दिक शुभकामनायें कि आपको अपना गाँव मिल जाये

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