अनुपम अहसास पारसमणि का



भोपाल के रवींद्र भवन में ख्यात पर्यावरणविद् और गांधीवादी अनुपम मिश्र के साथ मंच पर मौजूदगी मेरे लिए किसी सुखद स्वप्न से कम नहीं थी। उनके बारे में जो सुना था, पढ़ा था, उन्हें उससे भी कहीं ज्यादा पाया। आचार-विचार और पहनावे में ऐसी सादगी, जो हर किसी को इस शख्सियत के आगे नत-मस्तक होने पर मजबूर कर दे। इस मंच पर श्री मिश्र को मध्यप्रदेश शासन का शहीद चंद्रशेखर आजाद राष्ट्रीय सम्मान और मुझे पत्रकार रतनलाल जोशी पत्रकारिता पुरस्कार प्रदान किया गया। गिरते सामाजिक मूल्य और भ्रष्ट्राचार के इस दौर में अनुपम मिश्र किसी पारस मणि से कम नहीं है, जिसके छूनेभर से पत्थर भी सोना बन जाता है। मंच पर उनकी उपस्थित मात्र ने मध्यप्रदेश सरकार के पत्रकारिता पुरस्कार वितरण समारोह की ही गरिमा नहीं बढ़ाई बल्कि पुरस्कार ग्रहण करने वालों का भी मान बढ़ा दिया।
अनुपम मिश्र के बारे में आप और अधिक जान सकें, इसके लिए संजय तिवारी द्वारा उन पर लिखित आलेख यहां प्रस्तुत है-
अलंकरण और अहंकार से मुक्त अनुपम मिश्र का परिचय देना हो तो प्रख्यात पर्यावरणविद कहकर समेट दिया जाता है. उनके लिए यह परिचय मुझे हमेशा अधूरा लगता है. फिर हमें अपनी समझ की सीमाओं का भी ध्यान आता है. हम चौखटों में समेटने के अभ्यस्त हैं इसलिए जब किसी को जानने निकलते हैं तो उसको भी अपनी समझ के चौखटों में समेटकर उसका एक परिचय गढ़ देते हैं. लेकिन क्या वह केवल वही है जिसे हमने अपनी सुविधानुसार एक परिचय दे दिया है? कम से कम अनुपम मिश्र के बारे में यह बात लागू नहीं होती। वे हमारी समझ की सीमाओं को लांघ जाते हैं. उनको समझने के लिए हमें अपनी समझ की सीमाओं को विस्तार देना होगा. अपने दायरे फैलाने होंगे. असीम की समझ से समझेंगे तो अनुपम मिश्र समझ में आयेंगे और यह भी कि वे केवल प्रख्यात पर्यावरणविद नहीं हैं.
वे लोकजीवन और लोकज्ञान के साधक हैं। अब न लोकजीवन की कोई परिधि या सीमा है और न ही लोकज्ञान की. इसलिए अनुपम मिश्र भी किसी सीमा या परिचय से बंधें हुए नहीं हैं. हालांकि उन्हें हमेशा ऐतराज रहता है जब कोई उनके बारे में बोले-कहे या लिखे. उन्हें लगता है कि उनके बारे में लिखने से अच्छा है उनकी किताब "आज भी खरे हैं तालाब" के बारे में दो शब्द लिखे जाएं. कितने लाख लोग अनुपम मिश्र को जानते हैं इससे कोई खास मतलब नहीं है कितनी प्रतियां इस किताब की बिकी हैं सारा मतलब इससे है. तो क्या अनुपम मिश्र अपनी रॉयल्टी की चिंता में लगे रहनेवाले व्यक्ति हैं जो अपनी किताब को लेकर इतने चिंतित रहते हैं? शायद. क्योंकि उनकी रायल्टी है कि समाज ज्यादा से ज्यादा तालाब के बारे में अपनी धारणा ठीक करें. पानी के बारे में अपनी धारणा ठीक करे. पर्यावरण के बारे में अपनी धारणा ठीक करे. भारत और भारतीयता के बारे में अपनी धारणा शुद्ध करे. अगर यह सब होता है तो अनुपम मिश्र को उनकी रायल्टी मिल जाती है. और किताब पर लिखा यह वाक्य आपको प्रेरित करे कि इस पुस्तक पर कोई कॉपीराईट नहीं है, तो आप इस किताब में छिपी ज्ञानगंगा का अपनी सुविधानुसार जैसा चाहें वैसा प्रवाह निर्मित कर सकते हैं. यह जिस रास्ते गुजरेगी कल्याण करेगी.1948 में अनुपम मिश्र का जन्म वर्धा में हुआ था.
पिताजी हिन्दी के महान कवि. यह भी आपको तब तक नहीं पता चलेगा कि वे भवानी प्रसाद मिश्र के बेटे हैं जब तक कोई दूसरा न बता दे. मन्ना (भवानी प्रसाद मिश्र) के बारे में लिखे अपने पहले और संभवतः एकमात्र लेख में वे लिखते हैं"पिता पर उनके बेटे-बेटी खुद लिखें यह मन्ना को पसंद नहीं था." परवरिश की यह समझ उनके काम में भी दिखती है. इसलिए उनका परिचय अनुपम मिश्र हैं. भवानी प्रसाद मिश्र के बेटे अनुपम मिश्र कदापि नहीं. यह निजी मामला है. मन्ना उनके पिता थे और वैसे ही पिता थे जैसे आमतौर पर एक पिता होता है. बस. पढ़ाई लिखाई तो जो हुई वह हुई. 1969 में जब गाँधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़े तो एम.ए. कर चुके थे. लेकिन यह डिग्रीवाली शिक्षा किस काम की जब अनुपम मिश्र की समझ ज्ञान के उच्चतम धरातल पर विकसित होती हो. अपने एक लेख पर्यावरण के पाठ में वे लिखते हैं"लिखत-पढ़तवाली सब चीजें औपचारिक होती हैं. सब कक्षा में, स्कूल में बैठकर नहीं होता है. इतने बड़े समाज का संचालन करने, उसे सिखाने के लिए कुछ और ही करना होता है. कुछ तो रात को मां की गोदी में सोते-सोते समझ में आता है तो कुछ काका, दादा, के कंधों पर बैठ चलते-चलते समझ में आता है. यह उसी ढंग का काम है-जीवन शिक्षा का.अनुपम मिश्र कौन से काम की चर्चा कर रहे हैं? फिलहाल यहां तो वे पर्यावरण की बात कर रहे हैं। वे कहते हैं "केवल पर्यावरण की संस्थाएं खोल देने से पर्यावरण नहीं सुधरता. वैसे ही जैसे सिर्फ थाने खोल देने से अपराध कम नहीं हो जाते." यानी एक मजबूत समाज में पर्यावरण का पाठ स्कूलों में पढा़ने के भ्रम से मुक्त होना होगा. और केवल पर्यावरण ही क्यों जीवन के दूसरे जरूरी कार्यों की शिक्षा का स्रोत स्कूल नहीं हो सकते. फिर हमारी समझ यह क्यों बन गयी है कि स्कूल हमारे सभी शिक्षा संस्कारों के एकमेव केन्द्र होने चाहिए. क्या परिवार, समाज और संबंधों की कोई जिम्मेदारी नहीं रह गयी है? अनुपम मिश्र के बहाने ही सही इस बारे में तो हम सबको सोचना होगा. अनुपम मिश्र तो अपने हिस्से का काम कर रहे हैं. जरूरत है हम भी अपने हिस्से का काम करें.
भारत और भारतीयता की ऐसी गहरी समझ के साक्षात उदाहरण अनुपम मिश्र ने कुल छोटी-बड़ी 17 पुस्तके लिखी हैं जिनमें अधिकांश अब उपलब्ध नहीं है। एक बार नानाजी देशमुख ने उनसे कहा कि आज भी खरे हैं तालाब के बाद कोई और किताब लिख रहे हैं क्या? अनुपम जी सहजता से उत्तर दिया- जरूरत नहीं है. एक से काम पूरा हो जाता है तो दूसरी किताब लिखने की क्या जरूरत है.अनुपम मिश्र को भले ही लिखने की जरूरत नहीं हो लेकिन हमें अनुपम मिश्र को बहुत संजीदगी से पढ़ने की जरूरत है.
अनुपम मिश्र की उपलब्ध तीन पुस्तकें
१. आज भी खरे हैं तालाब
2. राजस्थान की रजत बूंदे
3. साफ माथे का समाज

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