अपनेराम पहुंचे चम्बल के बीहड़ में
अपनेराम जब कंचे, गिल्ली-डंडा खेलत हते, तबही से बड़े-बुजुर्गन से सुनत रहे थे कि चम्बल के बीहड़ में बड़े-बड़े डकैत होत हैं। हमारी मम्मी ने तो न सुलाओ, लेकिन गांव जाते तब हमें बताओ जातो कि जल्दी सो जाओ नहीं तो बागी उठा लै जांगे। शोले फिल्म के ठीक उस डायलॉग की तरह कि सोजा बेटा नहीं तो गब्बर आ जाएगा। खैर, जब होश संभाला तो हमारे मन में बागियन की फोटू कछु ऐसी थी- ललाट पर लंबा सा तिलक, घनी दाढ़ी-मूंछ, कांधे पर बंदूक और बीहड़ों में तेज गति से भागते घो़ड़े। यह फिल्मी छवि थी। बाद में गांव बारेअन ने बता दओ कि चम्बल के बीहड़ में बागियन के पास घोड़ा न पहले रहे, न अबे हैं। पढ़वे-लिखवे को काम शुरू करो, तो हर दूसरे दिना खबर आती कि फलां गांव में बागी आए और रुपैयन के लाने कोऊ उठाकर ले गए, तो कोऊ ये गोली मारकर भगवान के पास भेज दओ। अखबारन में ऐसी खबरें पढ़-पढ़के अपनेराम के मन में आओ कि काहे न बीहड़ में जाकै बागियन ते मिलो जाए। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान समेत पांच राज्यों का मोस्ट वांटेड पांच लाख रुपए के इनामी निर्भय सिंह गुर्जर के नाम का डंका चम्बल में पिछले तीन दशक से बज रहा था। फक्कड़ बाबा के साथ से शुरू हुआ उसका सफर फूलन, कुसुमा आदि से होते हुए स्वयंभु मुखिया तक पहुंच चुका था। सैकड़ों हत्याएं, अपहरण, डकैती व लूट की वारदातें उसके खाते में दर्ज हो चुकी थीं। निर्भय की बीवी नीलम को उसका दत्तक पुत्र श्याम लेकर भाग गया था, जिससे यह बागी सरदार बौखलाया हुआ था। इसी बौखलाहट में उसने अपने किसी आदमी से कहा कि वह किसी अखबारवाले से मिलना चाहता है। किस्मत से मुखबिर-दर-मुखबिर यह बात अपनेराम तक पहुंच गई। अपनेराम को बागी ने देखा तो था नहीं, सो भला वह विश्वास कैसे करता। इसी विश्वास के फेर में एक महीना गुजर गया। पांच अगस्त २००४ को अचानक संदेश मिला कि तैयार रहें, कभी भी मुलाकात संभव है। तब अपनेराम के अखबार में कानपुर के पंडित जी मुखिया हुआ करते थे। हमेशा अच्छे काम के लिए उत्साहित और प्रेरित करने वाले पंडितजी अपनेराम से छोटे भाई-सा स्नेह करते थे, सो मन में थोड़ी दुविधा थी कि बागियन को कोऊ भरोसो तो है नहीं। कछु है गओ तो अपनेराम के घरवालों को का जवाब देंगे। खैर ऐसे अवसर बार-बार तो आते नहीं, इसलिए पंडित जी ने भी कह दिया-चढ़जा बेटा सूली पर भली करेंगे राम।आठ अगस्त की रात दस बजे संदेश मिल गया कि नौ अगस्त की दोपहर निर्भय सिंह से मुलाकात होगी, तैयार रहना। मुलाकात कहां होगी यह सुबह बताया जाएगा। नौ अगस्त की अलसुबह चार बजे ही फोन आ गया कि गाड़ी लेकर उत्तरप्रदेश के इटावा शहर के रेलवे स्टेशन के बाहर आ जाओ। यहां एक आदमी मिलेगा, जिसके कंधे पर लाल रंग का मफलर होगा। अपनेराम ने टैक्सी मंगाई और सुबह नौ बजे फोटोग्राफर के साथ पहुंच गए इटावा के रेलवे स्टेशन पर। टैक्सी का रंग व नंबर पहले ही बता दिया गया था। जैसे ही गाड़ी रुकी, निर्भय के साथी डकैत लाठी का फोन आ गया। वह बोला- पहुंच गए आप। हां में जवाब मिलते ही उसने कहा- पास ही हमारा आदमी खड़ा है, वह तुम्हारे पास पहुंच रहा है। आगे क्या करना है, वही बताएगा? फोन काटने से पहले उसने यह जरूर जता दिया कि जैसा हमारा आदमी कहे, वैसा ही करना। चालाकी की, तो जान पर बन आएगी। शालीन भाषा में यह डकैतों को अपनेराम की धमकी थी। खैर, जिस आदमी का इंतजार था वह भी आ गया और सीधे गाड़ी में बैठ गया। उसके कहने पर हमने गाड़ी आगे बढ़ा दी। वह कानपुर राजमार्ग पर इटावा शहर से बाहर निकलते ही गाड़ी से उतर गया, मगर जाते-जाते बता गया कि आपका अगला मुकाम औरैया शहर है। वहां जो आदमी मिलेगा, उसे अपना नाम नहीं बताना। बस कह देना-मैं भोपाली शिकारी। मरते क्या ना करते, सो पहुंच गए औरैया। यहां परचुनी की एक दुकान पर जो लिंक बताया था वह मिल गया, मगर उसने हमें कोडवर्ड दिया- लाल गुलाब। यह महाशय सामान के दो कट्टों के साथ हमारी टैक्सी में बैठ गए। और हमारी टैक्सी बमुश्किल दस किमी प्रति घंटा की रफ्तार से पथरीले मार्ग पर आगे बढ़ने लगी। रास्ते में उड़ती धूल ने हमारे कपड़ों की तासीर बदली, तो दचकों (मार्ग के गड्ढों) ने हमारे शरीर का हुलिया बिगाड़ दिया। लगभग सत्रह किमी का यह मार्ग तय करन में दो घंटे लग गए। इसी रो़ड से बीस फर्लांग दूरी पर ईंट के भट्टे के पीछे जब टैक्सी को छिपाने की बात आई, तब हमारे टैक्सी ड्राइवर कुशवाह जी को आभास हुआ कि हम किस मिशन पर आए हैं। डर के मारे कुशवाह जी हमारे साथ जाने को तैयार नहीं हो रहे थे लेकिन इसी बीच वहां आए कुछ ग्रामीणों ने उनका हौसला बढ़ाया, तो कार ईंट के भट्टे के पीछे छिपाकर जाने को तैयार हो गए। ईंट के भट्टे पर दो अन्य लोग हमारा पहले से इंतजार कर रहे थे। इन्होंने अपना मुंह लुंगी (पैरों में लपेटा जाने वाला कपड़ा) से लपेटा हुआ था। उनके साथ हम पैदल ही चल पड़े बीहड़ की ओर। रास्ते में तीनों की आंखों पर पट्टी बांध दी गई। लगभग दो किमी चलने के बाद हम दस्यु सरगना निर्भय गुर्जर के अड्डे पर पहुंच गए। अड्डे का माहौल कैसा था, हम लोगों के साथ बागी कैसे पेश आए और ग्रामीणों ने हमारा हौसला क्यों बढ़ाया? इस पर प्रकाश अपनेराम अगली किस्त में प्रकाश डालेंगे। तब तक के लिए अपनेराम की राम-राम।
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