चरणभाट और कलमभाट

ताल-तलैया की नगरी से ग्वालियर आना हुआ, तो सोचा क्यों न सियासी हलचल की नजर की जाए। जब अपनों (अरे भाई वोई कलमघसीटू क्लर्क) के बीच पहुंचे तो अहसास हुआ कि पूरा निजाम ही बदला हुआ है। जब भी सियासी बयार चलती है, लोगों के चोले बदल जाते हैं। कुछ नेता गिरगिट की उपमा पाते हैं, तो कुछ सियार की। चुनाव के समय नेताओं को चरणभाटों की दरकार रहती है, जो उन्हें चंद पैसे या फिर स्वादिष्ट खाना या कपड़ों की कीमत पर सुलभ हो जाते हैं। चरणभाटों का दस्तूर राजा-महाराजाओं के जमाने का है और एक तरह से सियासतदारों के साथ जनता ने भी इन्हें स्वीकार कर लिया है लेकिन समाज की दशा-दिशा निर्धारित करन वाले कलमभाटों का चलन पिछले कुछ सालों में तेजी से बढ़ा है। सियासत में गहरी पैठ रखने वाले कलमभाटों को देश की राजधानी या किसी बड़े नगर में फ्लैट या कार की चाबी मिलने-दिलाने की चर्चाएं कलमकारों के बीच आम रही है। अब यह बीमारी छोटे शहरों तक पहुंचकर कलम को कटघरे में खड़ा कर रही है।
इस बार चुनाव में कोई मुद्दा या लहर लोगों के सिर चढ़कर नहीं बोल रही। नेताजी की छवि ही निर्णायक भूमिका में है, इसलिए अपनी छवि को चमकाने के लिए ग्वालियर-चम्बल संभाग में नेता कलमभाटों की खुलकर मदद ले रहे हैं। जरा गौर फरमाएं, मुरैना जिले में सत्ताधारी दल से जुड़े एक प्रत्याशी ने दर्जनभर कलमभाटों की सेवाएं ली हुई हैं और प्रत्येक कलमभाट की फीस निर्धारित की है दस हजार रुपए। भिंड जिले में भी कलमभाटों को अपने पक्ष में करने के लिए एक प्रत्याशी ने मोबाइल की बौछार-सी कर दी। कलमभाट तो कलमभाट, उनके कार्यालय में काम करने वाले कर्मचारियों की भी लाटरी खुल गई। ऐसे ही दतिया जिले के हर प्रमुख कलमभाट के दफ्तर में एक प्रत्याशी ने मोबाइल फोन देने के साथ ही जीतने पर टूरिस्ट पैकेज का वादा किया है। जब आसपास के जिलों की यह हालत है तो ग्वालियर जिले की स्थिति का आंकलन आप खुद ही लगा सकते हैं। आपके लिए एक हिंट जरुर है-कुछ ही सालों में लाखों से अरबों तक पहुंचने वाले नेताजी ने अपने पसंदीदा कलमभाटों के लिए शराब व शबाब का इंतजाम किया है, तो हर साल धार्मिक पर्यटन कराने वाले नेताजी ने बंद लिफाफों में बहुत कुछ अपने-अपनों तक पहुंचा दिया है।
सब जब कुछ प्रोफेशनल है और नेताजी भी दूध के धूले नहीं है, तो कलमभाटों को भी चाटुकारिता और चापलूसी में जाया किए गए समय और प्रतिभा की कीमत मिलना चाहिए। हालांकि यह कीमत कितनी हो इसका मानक कम से कम समाज की गंदगी साफ करने का दंभ भरने वाले ऐसे कलमभाटों को अवश्य तय करना चाहिए। अपना तो यही कहना है कि आटे में नमक ठीक है लेकिन नमक में आटा नहीं चलेगा, क्योंकि यह पब्लिक है सब जानती है। और अंत में एक शायर की पंक्तियां-
जो उनका काम है वो अहले सियासत जाने, मेरा पैगाम मोहब्बत है जहां तक पहुंचे

Comments

Anonymous said…
चंबल के डकैतों के बारे में हमने सुना भी है और पढ़ा भी। पत्रकार चंद पैसों के लिए अपना ईमान गिरवी रख रहे हैं, तो निश्चित ही चिंता की बात है। पत्रकारिता का सौदा करने वालों को कम से कम यह अवश्य सोच लेना चाहिए कि गलत रास्ते से आने वाला पैसा उनके लिए कितना लाभकारी है।
Anonymous said…
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